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“स्थितप्रज्ञ” का क्या अर्थ है और इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है?

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“स्थितप्रज्ञ” का क्या अर्थ है और इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है?

स्थिर मन का रहस्य: "स्थितप्रज्ञ" की ओर पहला कदम
साधक,
जब मन अति व्याकुल और विचारों की लहरें उफान पर हों, तब "स्थितप्रज्ञ" की अनुभूति एक दूर का स्वप्न लगती है। परन्तु यह स्वप्न नहीं, बल्कि गीता का एक अनमोल वरदान है, जिसे समझ कर और अभ्यास कर के हम सब पा सकते हैं। आइए, इस रहस्य को साथ मिलकर खोलें।

🕉️ शाश्वत श्लोक: गीता अध्याय 2, श्लोक 55

श्लोक:
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समदुःखसुखः क्षमी।
सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः॥ २-५५॥
हिंदी अनुवाद:
स्थितप्रज्ञ पुरुष की भाषा क्या होगी? वह सुख-दुःख में समान भाव रखता है, क्षमाशील होता है, सदा संतुष्ट रहता है, योग में स्थिर रहता है, अपने आप पर नियंत्रण रखता है और दृढ़ निश्चयी होता है।
सरल व्याख्या:
"स्थितप्रज्ञ" वह व्यक्ति है जो सुख-दुख में समान भाव रखता है, क्रोध या मोह से प्रभावित नहीं होता, क्षमा करता है, संतुष्ट रहता है और अपने मन को योग की स्थिति में स्थिर रखता है। वह अपने लक्ष्य के प्रति दृढ़ निश्चय वाला होता है।

🪬 गीता की दृष्टि से मार्गदर्शन

  1. समान भाव से देखें सुख-दुख को — जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, पर स्थिर मन वाला व्यक्ति दोनों को स्वीकार करता है।
  2. क्षमा और सहनशीलता अपनाएं — क्रोध और द्वेष छोड़कर, दूसरों की गलतियों को क्षमा करें।
  3. संतोष की भावना विकसित करें — जो है, उसी में खुश रहें, और अति लालसा से बचें।
  4. योग और आत्म-नियंत्रण का अभ्यास करें — नियमित ध्यान और स्व-निरीक्षण से मन को स्थिर करें।
  5. दृढ़ निश्चय से अपने कर्म पथ पर चलें — परिणाम की चिंता छोड़कर कर्म करते रहें।

🌊 मन की हलचल

शिष्य, समझता हूँ कि मन बार-बार विचलित होता है—एक पल में आशा, दूसरे में निराशा। कभी गुस्सा, कभी चिंता। ऐसा महसूस होता है जैसे मन को काबू में रखना नामुमकिन हो। पर याद रखो, यह मन का स्वभाव है, और इसे समझना ही पहला कदम है। स्थिरता पाने का मतलब मन को कठोर बनाने का नहीं, बल्कि उसे प्रेम और समझ से पकड़ने का है।

📿 कृष्ण क्या कहेंगे...

"हे अर्जुन, जब तू अपने मन को समदर्शी बनाएगा, तब तू न केवल अपने कर्मों में सफल होगा, बल्कि मन की गहराई में छिपी शांति को भी पा लेगा। सुख-दुख में समान भाव रखना, क्षमा करना और संतोष रखना—यही स्थिरता का मूल मंत्र है। अभ्यास कर, मैं तेरा मार्गदर्शक हूँ।"

🌱 एक छोटी सी कहानी / उपमा

एक बार एक नदी के किनारे दो बच्चे खेल रहे थे। एक बच्चा पानी में पत्थर डालकर लहरें बनाता, तो दूसरा चुपचाप बैठकर पानी की सतह को देखता। लहरें तो आती-जाती रहती हैं, पर पानी की गहराई स्थिर रहती है। स्थिरप्रज्ञता भी ऐसी ही है—मन की सतह पर भाव आएं, पर भीतर की गहराई शांत और स्थिर रहे।

✨ आज का एक कदम

आज के दिन, जब भी मन में कोई चिंता या क्रोध आए, एक गहरी सांस लें और सोचें: "क्या यह भावना मेरे मन को स्थिर बनाएगी या विचलित?" इस सरल प्रश्न से मन की हलचल पर नियंत्रण पाने की शुरुआत करें।

🧘 भीतर झांके कुछ क्षण

  • क्या मैं सुख-दुख को समान दृष्टि से देख सकता हूँ?
  • आज मैंने अपने मन को कितनी बार स्थिर रखने की कोशिश की?

🌼 स्थिर मन की ओर एक मधुर शुरुआत
साधक, याद रखो, "स्थितप्रज्ञ" कोई दूर की मंज़िल नहीं, बल्कि एक यात्रा है जो हर दिन के अभ्यास से पूरी होती है। हर पल अपने मन को प्रेम और धैर्य से समझो, वही तुम्हें स्थिरता की ओर ले जाएगा। मैं तुम्हारे साथ हूँ, इस पथ पर कदम-कदम पर।
शांत रहो, स्थिर रहो, और सच्चाई की ओर बढ़ते रहो।

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