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कृष्ण निःस्वार्थ नेतृत्व के बारे में क्या कहते हैं?

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कृष्ण निःस्वार्थ नेतृत्व के बारे में क्या कहते हैं?

नेतृत्व की सच्ची शक्ति: निःस्वार्थता का प्रकाश
साधक, जब हम नेतृत्व की बात करते हैं, तो अक्सर शक्ति, नियंत्रण और सफलता की छवि हमारे मन में उभरती है। परंतु कृष्ण हमें सिखाते हैं कि सच्चा नेतृत्व निःस्वार्थता से ही संभव है। एक ऐसा नेतृत्व जो स्वार्थ या अहंकार से मुक्त हो, जो केवल धर्म, न्याय और सेवा के लिए हो। चलिए गीता के प्रकाश में इस गूढ़ विषय को समझते हैं।

🕉️ शाश्वत श्लोक

अध्याय 3, श्लोक 19
"तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥"

अर्थ:
इसलिए, हे अर्जुन! निःस्वार्थ होकर, संसार में अपने कर्मों का पालन करते रहो। जो व्यक्ति बिना किसी आसक्ति के कर्म करता है, वह परम लक्ष्य को प्राप्त होता है।
सरल व्याख्या:
कृष्ण कहते हैं कि नेतृत्व का अर्थ है अपने स्वार्थ को त्यागकर, केवल अपने कर्तव्य और धर्म के लिए कर्म करना। जब कोई व्यक्ति अपने कर्मों से जुड़ा नहीं होता, तो वह सच्चे नेतृत्व की ऊँचाई तक पहुँचता है।

🪬 गीता की दृष्टि से मार्गदर्शन

  1. कर्तव्यपरायणता, न स्वार्थपरायणता:
    नेतृत्व का लक्ष्य अपने स्वार्थ या मान-सम्मान की पूर्ति नहीं, बल्कि समाज और संगठन की भलाई होनी चाहिए।
  2. असक्त होकर कर्म करना:
    अपने कार्यों को फल की चिंता के बिना करना सच्चे नेतृत्व की निशानी है।
  3. धैर्य और संयम:
    निःस्वार्थ नेता कठिनाइयों में भी स्थिर रहता है, क्योंकि उसका उद्देश्य केवल सेवा है।
  4. प्रेम और करुणा से नेतृत्व:
    जो नेता अपने अनुयायियों के प्रति सच्चा प्रेम और करुणा रखता है, वह ही स्थायी नेतृत्व कर सकता है।
  5. स्वयं को नहीं, बल्कि उद्देश्य को महत्व देना:
    नेतृत्व में अहंकार का त्याग करना आवश्यक है, तभी वह प्रभावी और स्थायी बनता है।

🌊 मन की हलचल

शायद तुम्हारे मन में सवाल उठ रहे हैं — "क्या मैं अपने स्वार्थ से ऊपर उठ पाऊंगा?" "क्या बिना किसी लाभ की आशा के मैं नेतृत्व कर पाऊंगा?" ये प्रश्न स्वाभाविक हैं। याद रखो, हर महान नेता ने अपने अहंकार को परास्त किया है। तुम्हारा संघर्ष ही तुम्हें सशक्त बनाएगा।

📿 कृष्ण क्या कहेंगे...

"हे साधक, जब तुम अपने कर्मों को अपने स्वार्थ से अलग कर दोगे, तब तुम्हारा नेतृत्व स्वाभाविक रूप से चमकेगा। याद रखो, मैं तुम्हारे साथ हूँ। अपने मन को स्थिर रखो, कर्म करते रहो, फल की चिंता मत करो। यही सच्चा नेतृत्व है।"

🌱 एक छोटी सी कहानी / उपमा

एक बार एक शिक्षक ने अपने छात्रों को एक पौधा दिया और कहा, "इसकी देखभाल तुम सबको करनी है।" कुछ छात्र केवल अपने नाम के लिए पौधे को सजाने लगे, कुछ ने इसे अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल किया। पर एक छात्र ने बिना किसी स्वार्थ के, केवल पौधे की भलाई के लिए उसे पानी और प्यार दिया। समय के साथ वही पौधा सबसे सुंदर और स्वस्थ बना।
नेतृत्व भी ऐसा ही है — जब हम निःस्वार्थ भाव से कार्य करते हैं, तो हमारा प्रभाव स्थायी और सच्चा होता है।

✨ आज का एक कदम

अपने आज के कार्यों में से एक ऐसा कार्य चुनो जिसे बिना किसी स्वार्थ के, केवल सेवा भाव से करो। देखें कि तुम्हारे मन में क्या अनुभव होता है।

🧘 अंदर झांके कुछ क्षण

  • क्या मैं अपने नेतृत्व में स्वार्थ और अहंकार को पहचान पा रहा हूँ?
  • मैं किस तरह अपने कर्मों को निःस्वार्थ बना सकता हूँ?

निःस्वार्थ नेतृत्व की ओर पहला कदम
साधक, याद रखो कि सच्चा नेतृत्व स्वार्थ से ऊपर उठकर, सेवा और समर्पण का नाम है। जब तुम अपने कर्मों को निःस्वार्थ बनाओगे, तो तुम्हारा नेतृत्व न केवल दूसरों को प्रेरित करेगा, बल्कि तुम्हें भी आंतरिक शांति और संतोष देगा। इस पथ पर मैं तुम्हारे साथ हूँ। आगे बढ़ो, तुम्हारा प्रकाश जगमगाएगा।

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