अहंकार के बंधन से मुक्त: पद और पहचान से परे चलना
साधक,
तुम्हारे मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है। जब हम नौकरी, पद और शीर्षक को अपनी पहचान मान लेते हैं, तो हमारा अहंकार उस पहचान के साथ जुड़ जाता है। यह अहंकार कभी-कभी हमारे भीतर असंतोष, तनाव और भय का कारण बनता है। लेकिन याद रखो, तुम पद या शीर्षक नहीं हो, तुम उससे कहीं अधिक हो। चलो इस उलझन को भगवद गीता के प्रकाश में समझते हैं।
🕉️ शाश्वत श्लोक
मज्जस्व गतोऽस्मि मध्ये धर्म्ये चिरं तिष्ठ मे।
यथाकाशसदृशं व्याप्तं सर्वत्रमिदं जगत्॥
(भगवद गीता 11.38)
हिंदी अनुवाद:
हे भगवान! मैं धर्म के बीच में स्थित हूँ, जो इस संसार में व्याप्त है, जैसे आकाश सर्वत्र फैला हुआ है।
सरल व्याख्या:
यह श्लोक अर्जुन की उस अनुभूति का वर्णन करता है, जब वे समझते हैं कि वह स्वयं इस विशाल ब्रह्मांड का एक अंश हैं। पद, नाम, या शीर्षक केवल बाहरी आवरण हैं; असली ‘मैं’ तो उस सबके भीतर व्याप्त है, जो असीमित और निराकार है।
🪬 गीता की दृष्टि से मार्गदर्शन
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स्वयं को कर्म में लगाओ, फल में नहीं।
पद या नाम की चाह में मत फंसो, बल्कि अपने कर्म को पूरी निष्ठा से करो। -
अहंकार को कर्मफल से जोड़ना बंद करो।
पद तुम्हारा नहीं, वह केवल एक भूमिका है जिसे तुम निभा रहे हो। -
सर्वत्र व्याप्त आत्मा को पहचानो।
तुम उस आत्मा के अंश हो, जो सब जगह है और जो कभी नहीं मरती। -
कर्मयोग अपनाओ।
निष्काम भाव से कर्म करना सीखो, जो अहंकार को शांत करता है। -
अपने भीतर के स्थिर और शाश्वत स्वरूप से जुड़ो।
पद बदल सकता है, लेकिन तुम्हारा आत्मस्वरूप अटल है।
🌊 मन की हलचल
तुम सोच रहे हो — "क्या मेरा पद ही मेरी पहचान है? अगर वह छिन गया तो मैं कौन रह जाऊंगा?" यह भय सामान्य है। पर याद रखो, पद खोने से व्यक्ति खत्म नहीं होता, बल्कि वह अवसर होता है अपने वास्तविक स्वरूप को जानने का। यह डर तुम्हें बांधने वाला जाल है, उसे समझो और उससे बाहर निकलो।
📿 कृष्ण क्या कहेंगे...
"हे अर्जुन, जो पद तुम्हें बड़ा महसूस कराता है, वही तुम्हें छोटा भी कर सकता है। पद के पीछे मत भागो, बल्कि अपने कर्म को श्रेष्ठ बनाओ। जब तुम अपने कर्म से जुड़ जाओगे, तब पद की मोह माया स्वतः दूर हो जाएगी। याद रखो, मैं तुम्हारे भीतर हूँ, तुम्हारे कर्मों में हूँ, पद में नहीं।"
🌱 एक छोटी सी कहानी / उपमा
एक बार एक विद्यार्थी था, जो केवल अपनी परीक्षा में अच्छे नंबर पाने के लिए पढ़ता था। जब वह नंबर नहीं पा सका, तो वह बहुत दुखी हुआ। फिर उसके गुरु ने कहा, "बेटा, नंबर तो केवल एक पदक है, असली ज्ञान तुम्हारे अंदर है। जब तुम ज्ञान को समझोगे, तो नंबर अपने आप आएंगे या न आएं, तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा।"
यह कहानी हमें सिखाती है कि बाहरी पद या सम्मान से अधिक महत्वपूर्ण हमारा आंतरिक विकास है।
✨ आज का एक कदम
आज अपने काम को इस सोच से करो — "मैं यह काम पद या सम्मान के लिए नहीं, बल्कि अपने कर्तव्य और आत्मा की संतुष्टि के लिए कर रहा हूँ।" इस भावना को अपने कर्म में उतारो।
🧘 भीतर झांके कुछ क्षण
- क्या मैं अपने पद को अपनी पहचान मान कर खुद को सीमित तो नहीं कर रहा?
- मैं अपने कर्म को निष्काम भाव से करने के लिए क्या कर सकता हूँ?
पद से परे: आत्मा की असली पहचान की ओर
साधक, पद और शीर्षक केवल बाहरी आवरण हैं, असली पहचान तुम्हारा आत्मा है, जो न तो बढ़ता है और न घटता। अपने कर्म में लीन रहो, अहंकार को त्यागो और जीवन की सच्ची ऊंचाई को छूओ। तुम अकेले नहीं हो, मैं तुम्हारे साथ हूँ।
शुभकामनाएँ और आशीर्वाद! 🌸