अहंकार की दीवार तोड़ो, समर्पण की राह पकड़ो
साधक, अहंकार हमारे भीतर की वह दीवार है जो प्रेम, शांति और सच्चे समर्पण के प्रवाह को रोकती है। यह समझना जरूरी है कि अहंकार हमारे असली स्वरूप का आवरण मात्र है, और इसे धीरे-धीरे पहचान कर छोड़ना ही सच्ची भक्ति की शुरुआत है। तुम अकेले नहीं हो इस यात्रा में, हर भक्त इसी संघर्ष से गुजरता है।
🕉️ शाश्वत श्लोक
अध्याय 18, श्लोक 66
सanskrit:
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
हिंदी अनुवाद:
सभी धर्मों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आ जाओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा, इसलिए चिंता मत करो।
सरल व्याख्या:
यह श्लोक हमें अहंकार छोड़कर पूरी तरह से ईश्वर की शरण में जाने का संदेश देता है। जब हम अपने संपूर्ण अस्तित्व को ईश्वर को समर्पित कर देते हैं, तभी सच्चा मोक्ष और शांति मिलती है।
🪬 गीता की दृष्टि से मार्गदर्शन
- अहंकार का मूल कारण 'मैं' की भावना है — गीता कहती है कि यह अस्थायी है, और इसे समझना पहला कदम है।
- समर्पण का अर्थ है 'स्वयं को ईश्वर के हाथों में सौंपना' — यह मन की पूरी स्वीकृति है, न कि केवल शब्दों की।
- कर्मयोग अपनाओ, फल की चिंता छोड़ो — जब कर्म बिना फल की इच्छा के किए जाते हैं, तब अहंकार स्वतः कम होता है।
- भक्ति योग में निरंतर ध्यान और प्रार्थना से अहंकार का क्षरण होता है — यह एक अभ्यास है, जो धीरे-धीरे मन को शुद्ध करता है।
- ईश्वर की महिमा को स्वीकारो और खुद को उनकी सेवा में समर्पित करो — यही सच्चा समर्पण है।
🌊 मन की हलचल
"मैं इतना बड़ा हूँ, इतना जानता हूँ, फिर भी क्यों मन में घमंड और अहंकार की जड़ें इतनी गहरी हैं? मैं समर्पण करना चाहता हूँ, पर मेरा मन बार-बार मुझसे लड़ता है। क्या मैं सच में अपने अहंकार को छोड़ पाऊंगा? क्या ईश्वर मेरी कमजोरी को समझेंगे?"
ऐसे सवाल और भाव तुम्हारे मन में उठना स्वाभाविक है। यह संघर्ष तुम्हारी प्रगति का हिस्सा है। याद रखो, अहंकार को पूरी तरह से मारना नहीं, बल्कि उसे पहचानकर धीरे-धीरे त्यागना ही भक्ति की राह है।
📿 कृष्ण क्या कहेंगे...
"हे साधक, अहंकार तुम्हारा दुश्मन नहीं, बल्कि तुम्हारा शिक्षक है। उसे न घृणा करो, न दबाओ। उसे समझो, उससे प्रेम करो, क्योंकि वही तुम्हें तुम्हारे वास्तविक स्वरूप की ओर ले जाएगा। जब तुम मेरी शरण में आओगे, तब मैं तुम्हारे अहंकार को प्रेम की अग्नि में पिघला दूंगा। समर्पण का अर्थ है अपने स्वभाव की सारी सीमाओं को छोड़ देना और मेरे प्रेम में खो जाना। डरो मत, मैं तुम्हारे साथ हूँ।"
🌱 एक छोटी सी कहानी / उपमा
एक बार एक नदी के किनारे एक बड़ा पत्थर था। नदी का पानी पत्थर से टकराता, पर पत्थर अपनी जगह अडिग रहता। धीरे-धीरे पानी पत्थर को घिसता गया, उसे चिकना और सुंदर बनाता गया। पत्थर ने अपनी कठोरता नहीं छोड़ी थी, पर पानी के समर्पण से वह बदल गया। उसी तरह, हमारा अहंकार भी कठोर पत्थर की तरह है, और समर्पण वह नदी का पानी है, जो धीरे-धीरे उसे पिघला कर प्रेम और शांति का रूप देता है।
✨ आज का एक कदम
आज अपने अहंकार की एक छोटी सी पहचान करो — वह कौन सा विचार या भावना है जो तुम्हें दूसरों से ऊपर समझने या खुद को बचाने पर मजबूर करता है? उसे एक कागज पर लिखो और फिर उसे धीरे-धीरे अपने दिल से छोड़ने का संकल्प लो। फिर ईश्वर को समर्पित करते हुए कहो, "हे प्रभु, यह अहंकार मेरा नहीं, इसे मुझे छोड़ने की शक्ति दो।"
🧘 अंदर झांके कुछ क्षण
- क्या मैं अपने अहंकार को पहचान पा रहा हूँ?
- क्या मैं समर्पण के लिए सच में तैयार हूँ, या मन में कोई डर या संदेह है?
समर्पण की ओर पहला कदम, अहंकार से मुक्ति की शुरुआत
साधक, अहंकार की दीवार को तोड़ना आसान नहीं, पर असंभव भी नहीं। गीता का संदेश हमेशा तुम्हारे साथ है — तुम अकेले नहीं हो। धीरे-धीरे, प्रेम और विश्वास के साथ कदम बढ़ाओ। समर्पण की इस यात्रा में मैं तुम्हारे साथ हूँ। शांति और प्रेम की अनुभूति हो तुम्हें।
ॐ शांति: शांति: शांति:
जय श्री कृष्ण!