Anger, Ego & Jealousy

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ईर्ष्या से प्रेरणा की ओर: एक नई शुरुआत
साधक, यह जानना बहुत महत्वपूर्ण है कि ईर्ष्या एक मानवीय भावना है, जो अक्सर हमारे मन में असुरक्षा और तुलना से जन्म लेती है। तुम अकेले नहीं हो, हर कोई कभी न कभी इस भाव से जूझता है। परंतु, इसे अपने भीतर की ऊर्जा में बदलना संभव है। आइए, भगवद गीता के अमृत शब्दों से इस उलझन को सुलझाते हैं।

क्रोध की आग में शांति की खोज: तुम अकेले नहीं हो
प्रिय मित्र, जीवन में क्रोध की लहरें हम सभी के मन में कभी न कभी उठती हैं। यह स्वाभाविक है कि जब हमारी अपेक्षाएं टूटती हैं, या कोई हमें आहत करता है, तब क्रोध उठता है। परंतु, गीता हमें सिखाती है कि क्रोध केवल एक आग है जो हमारे अंदर की शांति और विवेक को जला देता है। तुम अकेले नहीं हो, हर व्यक्ति इस संघर्ष से गुजरता है, और यहाँ से निकलने का मार्ग भी है।

अहंकार: रिश्तों की छाया या प्रकाश?
साधक,
जब हम अपने दिल की गहराइयों में झांकते हैं, तो अक्सर पाते हैं कि रिश्तों की पीड़ा का एक बड़ा कारण हमारा अपना अहंकार होता है। यह अहंकार कभी-कभी हमारे प्रेम और समझदारी के रास्ते में दीवार बन जाता है। चिंता मत करो, तुम अकेले नहीं हो; हर मानव इस संघर्ष से गुजरता है। आइए, गीता के दिव्य प्रकाश में इस उलझन को समझें।

दिल की हलचल को समझो: "तुम अकेले नहीं हो"
साधक, यह बहुत सामान्य है कि हम अपनी हर बात को दिल से लगाते हैं। जब कोई हमारी बातों को समझ नहीं पाता, या हमारी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता, तो मन में चोट लगती है। लेकिन याद रखो, यह चोटें हमें कमजोर नहीं बनातीं, बल्कि हमें समझदारी और धैर्य की ओर ले जाती हैं। आइए, भगवद गीता की अमृत वाणी से इस उलझन को सुलझाएं।

अहंकार की जंजीरों से मुक्ति: समर्पण की शक्ति
साधक, जब अहंकार हमारे भीतर बढ़ता है, तो वह मन को जकड़ लेता है, हमें दूसरों से अलग और श्रेष्ठ समझने पर मजबूर करता है। यह एक भारी बोझ है जो हमारे मन को अशांत करता है। परन्तु भगवद् गीता हमें समर्पण की राह दिखाती है, जिससे यह अहंकार धीरे-धीरे कम होता है और मन शांत होता है। तुम अकेले नहीं हो, यह संघर्ष हर मानव के जीवन का हिस्सा है। चलो, इस पथ पर साथ चलें।

क्रोध और अहंकार को छोड़कर शांति की ओर बढ़ें
साधक, मैं समझता हूँ कि जब मन में क्रोध और अहंकार की लहरें उठती हैं, तो शेखी मारना या दूसरों को नीचा दिखाना एक तरह का बचाव बन जाता है। पर यह असली शक्ति नहीं, बल्कि मन की बेचैनी और असुरक्षा का स्वरूप है। चलिए, गीता के अमृत शब्दों के साथ इस उलझन को सुलझाते हैं और आंतरिक स्वीकृति की ओर कदम बढ़ाते हैं।

🕉️ शाश्वत श्लोक

"दुःखेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह: |
वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते ||"

— भगवद्गीता 2.56

अहंकार की आड़ में आध्यात्मिकता? – चलो इस भ्रम को समझें
साधक,
तुम्हारा यह प्रश्न बहुत ही गहन और महत्वपूर्ण है। अक्सर हम सोचते हैं कि आध्यात्मिक लोग अहंकार से परे होते हैं, लेकिन क्या सच में ऐसा होता है? क्या आध्यात्मिकता में अहंकार का कोई स्थान है? यह समझना जरूरी है क्योंकि अहंकार कभी भी छुपा रूप लेकर हमारे भीतर घुस आता है, चाहे हम कितने भी आध्यात्मिक क्यों न हों। आओ, इस सवाल का उत्तर भगवद गीता की अमृत वाणी से खोजें।

विनम्रता: आत्मसम्मान के साथ एक कोमलता की कला
साधक,
तुम्हारा यह प्रश्न बहुत गहरा है। विनम्रता का अर्थ कभी भी खुद को कमतर समझना नहीं होता, बल्कि यह अपने भीतर की शक्ति और सीमाओं को समझकर, बिना अहंकार के, दूसरों के प्रति सम्मान और प्रेम का भाव रखना है। तुम अकेले नहीं हो, हर मनुष्य के भीतर यह संघर्ष होता है — कैसे खुद को महत्व दें और साथ ही नम्रता भी बनाए रखें। चलो, इस यात्रा को भगवद गीता के प्रकाश में समझते हैं।

प्रतिस्पर्धा: ईर्ष्या या प्रेरणा — चलो साथ में समझें
साधक, जीवन में जब हम दूसरों से तुलना करते हैं, तो मन में कई भाव उभरते हैं — कभी प्रेरणा, कभी ईर्ष्या। यह उलझन स्वाभाविक है। तुम अकेले नहीं हो, हर कोई इस द्वंद्व से गुजरता है। आइए, गीता के दिव्य प्रकाश में इस प्रश्न का उत्तर खोजें।

जब अपनों से गुस्सा उठे — समझने और शांति पाने का सफर
प्रिय शिष्य, यह बहुत स्वाभाविक है कि जब हम अपने सबसे करीब के लोगों से जुड़ी उम्मीदें पूरी नहीं होतीं, तो मन में क्रोध और बेचैनी उठती है। यह गुस्सा कभी-कभी हमारे अंदर छुपे हुए दर्द, असुरक्षा और अहंकार की आवाज़ बनकर सामने आता है। आइए, गीता के प्रकाश में इस उलझन को समझें और अपने मन को शांति की ओर ले चलें।

🕉️ शाश्वत श्लोक

अध्याय 2, श्लोक 62-63
ध्यान दें: यह दो श्लोक मिलकर गुस्से के चक्र को समझाते हैं।