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प्रशंसा-आलोचना की लहरों में स्थिर रहो
साधक, जीवन की इस यात्रा में जब हम दूसरों की प्रशंसा और आलोचना के बीच झूलते हैं, तब मन अक्सर अस्थिर हो जाता है। तुम्हारा यह प्रश्न बहुत गहरा है, क्योंकि यही समझ हमें आंतरिक शांति की ओर ले जाती है। तुम अकेले नहीं हो; हर कोई इस द्वैत के बीच संतुलन खोजता है। चलो, गीता के स्नेहिल शब्दों से इस उलझन को सुलझाते हैं।

कार्य में स्वतंत्रता: प्रशंसा और आलोचना के बंधनों से मुक्त होना
प्रिय शिष्य, यह प्रश्न तुम्हारे मन की गहराई को छूता है। जब हम नेतृत्व या कार्य की जिम्मेदारी निभाते हैं, तब बाहरी प्रशंसा या आलोचना हमारे मन को विचलित कर सकती है। परंतु, सच्चा नेतृत्व और कर्म वही है जो अपने फल की चिंता किए बिना, निस्वार्थ भाव से किया जाए। आइए, भगवद गीता की अमूल्य शिक्षाओं के साथ इस उलझन को सरल बनाएं।

आलोचना और प्रशंसा के बीच: अपने सच्चे स्वरूप को पहचानना
प्रिय शिष्य, जब जीवन में आलोचना और प्रशंसा की लहरें आती हैं, तब मन बहक जाता है। यह स्वाभाविक है कि हम इन भावों से प्रभावित होते हैं। परन्तु क्या यही हमारा असली स्वरूप है? क्या हम अपने मन की हलचल में खो जाएं या फिर एक स्थिर, अडिग शांति का अनुभव करें? आइए, भगवद गीता के अमृत वचनों से इस उलझन को सुलझाते हैं।

🌿 प्रशंसा की चाह से मुक्त होने का पहला कदम
साधक, यह सच है कि हम सबके मन में दूसरों की प्रशंसा पाने की इच्छा होती है। यह मान्यता की लालसा हमें कर्म करते हुए भी भीतर से बेचैन कर देती है। परंतु याद रखो, तुम्हारा सच्चा मूल्य तुम्हारे कर्मों से है, न कि दूसरों की बातों से। आइए, हम गीता के अमृत शब्दों से इस आसक्ति को कैसे दूर करें, समझते हैं।

सफलता की लहरों में स्थिरता का सागर
प्रिय शिष्य, सफलता और प्रशंसा की चमक भले ही मन को लुभाती है, परंतु उनका स्थायी सुख नहीं होता। ये तो उस झरने की तरह हैं जो कभी-कभी बहती है, कभी थम जाती है। ऐसे में स्थिरता और संतुलन बनाए रखना एक कला है, जिसे भगवद गीता की अमृत वाणी से समझा जा सकता है। चलिए, इस यात्रा में हम साथ चलें।

प्रशंसा के बीच भी आत्मसंतुलन बनाए रखना — एक गुरु की सलाह
साधक, जब हमें प्रशंसा मिलती है, तो मन में खुशी और गर्व के साथ-साथ अहंकार भी पलने लगता है। यह स्वाभाविक है। परंतु, जीवन की सच्ची शांति और स्थिरता तभी आती है जब हम प्रशंसा के सुख को भी अपने मन का गुलाम न बनने दें। आइए, भगवद गीता के अमृत वचनों से इस उलझन का समाधान खोजें।

🕉️ शाश्वत श्लोक

अध्याय 2, श्लोक 47
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥