खोई हुई पहचान: जब आत्मा की आभा छिप जाती है
साधक, यह बहुत स्वाभाविक है कि जीवन की भागदौड़, सामाजिक अपेक्षाएं, और मन की उलझनों में हम अपनी सच्ची पहचान से दूर हो जाते हैं। तुम्हारे भीतर जो दिव्य प्रकाश है, वह जब धुंधलाने लगता है, तो मन अस्थिर और भ्रमित हो जाता है। लेकिन याद रखो, तुम अकेले नहीं हो; हर व्यक्ति कभी न कभी इस भ्रम के अंधकार में खोया है। चलो, मिलकर इस गूढ़ प्रश्न का उत्तर भगवद गीता की अमृत वाणी से खोजते हैं।