possessiveness

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रिश्तों की डोर में स्वामित्व का जाल: चलो समझें कृष्ण की दृष्टि
साधक,
रिश्ते हमारे जीवन की सबसे खूबसूरत परतें हैं, लेकिन जब हम उनमें अत्यधिक स्वामित्व की भावना लेकर उलझ जाते हैं, तो वे प्रेम की जगह बंधन बन जाते हैं। तुम्हारा यह प्रश्न बहुत गहन है, क्योंकि स्वामित्व और प्रेम के बीच की रेखा अक्सर धुंधली हो जाती है। आइए, कृष्ण के शब्दों के माध्यम से इस उलझन को सुलझाएं।

प्रेम की असली पहचान: आसक्ति से परे एक यात्रा
साधक,
जब हम प्रेम की बात करते हैं, तो अक्सर हमारे मन में जुड़ाव और आसक्ति के भाव उभरते हैं। यह स्वाभाविक है कि दिल किसी से जुड़ता है, लेकिन क्या वही जुड़ाव हमें सच्चा प्रेम दे पाता है? या वह हमें बंधन में जकड़ लेता है? भगवद गीता में इस उलझन का गहरा समाधान छुपा है। आइए, मिलकर समझें कि गीता हमें इस विषय में क्या सिखाती है।

प्रेम की सच्ची आत्मा: स्वामित्व से परे उड़ान
साधक, जब दिल में प्रेम होता है, तो वह अक्सर स्वामित्व की जंजीरों में बंध जाता है। हम चाहते हैं कि जो हमसे जुड़े हैं, वे केवल हमारे हों, हमारे नियंत्रण में हों। पर क्या यही प्रेम है? भगवद् गीता हमें प्रेम की उस उन्नत अवस्था की ओर ले जाती है जहाँ प्रेम स्वामित्व से मुक्त होकर मुक्त और दिव्य बन जाता है।

दिल से दिल तक: जब रिश्तों में स्वामित्व की भावना घेर ले
साधक, रिश्तों की दुनिया में स्वामित्व की भावना अक्सर हमारे मन को जकड़ लेती है। हम चाहते हैं कि हमारे प्रिय केवल हमारे हों, हमारी इच्छाओं के अनुसार चलें, और कभी-कभी यह जकड़न प्रेम की जगह तनाव बना देती है। परंतु गीता हमें सिखाती है कि सच्चा प्रेम स्वामित्व से परे होता है। आइए इस गूढ़ विषय को समझते हैं।