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डर को पीछे छोड़, भविष्य की ओर साहस से बढ़ो
प्रिय युवा मित्र, तुम्हारे मन में जो भय है, वह स्वाभाविक है। भविष्य की अनिश्चितता, सफलता की चिंता, असफलता का डर—ये सब तुम्हारे जैसे युवा दिलों का हिस्सा हैं। पर याद रखो, तुम अकेले नहीं हो। हर महान योद्धा ने अपने संघर्ष में यही सवाल उठाए हैं। आइए, भगवद गीता के प्रकाश में इस भय को समझें और उससे मुक्त होने का मार्ग पाएं।

भविष्य की अनिश्चितता में समर्पण: एक विश्वास की ओर कदम
साधक, जब भविष्य अंधकारमय और अनिश्चित प्रतीत होता है, तो मन में भय, उलझन और अस्थिरता जन्म लेती है। ऐसे समय में समर्पण करना कठिन लगता है। परंतु यही समर्पण तुम्हारे मन को शांति और स्थिरता प्रदान कर सकता है। तुम्हें यह जान लेना चाहिए कि तुम अकेले नहीं हो; हर जीव इसी अनिश्चितता के बीच जी रहा है। आइए, हम गीता के अमृत शब्दों से इस उलझन को सुलझाएं।

🕉️ शाश्वत श्लोक

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥

— भगवद्गीता 2.48

भविष्य की अनिश्चितता में विश्वास की लौ जलाएं
साधक,
जब तुम्हारे मन में भविष्य को लेकर भ्रम और अनिश्चितता की धुंध छा जाती है, तब यह स्वाभाविक है कि मन विचलित हो, और आत्मा बेचैन हो। जान लो कि तुम अकेले नहीं हो; हर जीवात्मा जीवन के उस मोड़ पर कभी न कभी इसी प्रश्न से जूझता है। यह भ्रम तुम्हारे विकास की प्रक्रिया का हिस्सा है। चलो, भगवद गीता की दिव्य दृष्टि से इस अंधकार को प्रकाश में बदलते हैं।