स्वयं को न खोते हुए कृष्ण को समर्पित होना — एक प्रेमपूर्ण समर्पण की कला
साधक, तुम्हारा यह प्रश्न गहरा और सार्थक है। समर्पण का अर्थ केवल अपने अस्तित्व को मिटाना नहीं, बल्कि अपने व्यक्तित्व की सुंदरता को बनाए रखते हुए उस परमात्मा के चरणों में पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ आत्मसमर्पण करना है। यह एक नाजुक संतुलन है — जहाँ तुम स्वयं बने रहो, फिर भी कृष्ण के स्नेह और प्रकाश में खिल उठो।