selflessness

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दूसरों की सफलता में सच्ची खुशी कैसे पाएं — एक आत्मीय संवाद
साधक, जब हम अपने आस-पास के लोगों की सफलता देखते हैं, तो कभी-कभी मन में ईर्ष्या या असहजता का भाव उठता है। यह स्वाभाविक है, क्योंकि हमारा मन स्वाभाविक रूप से अपने लिए बेहतर चाहता है। परंतु क्या हम उस खुशी को महसूस कर सकते हैं जो दूसरों की सफलता में छिपी होती है? आइए, गीता के अमृतमय शब्दों से इस उलझन को सुलझाएं।

समझदारी का दीपक: स्वार्थ से परे निर्णय लेने की कला
साधक,
तुम्हारे मन में जो सवाल है, वह हर मानव के जीवन का सार है। निर्णय लेना, खासकर बिना स्वार्थ के, एक गहन कला है। यह केवल दिमाग की बात नहीं, बल्कि हृदय की भी सुननी होती है। चिंता मत करो, तुम अकेले नहीं हो इस राह पर। चलो, भगवद गीता की अमूल्य शिक्षाओं से इस उलझन को सुलझाते हैं।

नेतृत्व की सच्ची शक्ति: निःस्वार्थता का प्रकाश
साधक, जब हम नेतृत्व की बात करते हैं, तो अक्सर शक्ति, नियंत्रण और सफलता की छवि हमारे मन में उभरती है। परंतु कृष्ण हमें सिखाते हैं कि सच्चा नेतृत्व निःस्वार्थता से ही संभव है। एक ऐसा नेतृत्व जो स्वार्थ या अहंकार से मुक्त हो, जो केवल धर्म, न्याय और सेवा के लिए हो। चलिए गीता के प्रकाश में इस गूढ़ विषय को समझते हैं।

आत्म-साक्षात्कार: स्वार्थ का अंधेरा या प्रकाश का मार्ग?
साधक,
जब तुम आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर चलने की सोचते हो, तो मन में यह सवाल आना स्वाभाविक है — क्या यह स्वार्थी है? क्या मैं केवल अपने लिए ही सोच रहा हूँ? चलो, इस भ्रम को भगवद् गीता के प्रकाश में समझते हैं।

कर्म की शक्ति: निःस्वार्थ भाव से सफलता की ओर
प्रिय शिष्य, जब हम अपने कार्यों को निःस्वार्थ भाव से करते हैं, तो हमारा मन हल्का होता है, हमारा ध्यान केंद्रित रहता है, और सफलता अपने आप हमारे कदम चूमती है। तुम्हारा यह प्रश्न, "गीता में निःस्वार्थ कारणों से कार्य करने के बारे में क्या कहा गया है?" बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि कर्म का फल छोड़कर कर्म करना ही सच्ची सफलता और मानसिक शांति का मार्ग है।

🕉️ शाश्वत श्लोक

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥

— भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ४७